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इनके-उनके सबके मन को / धीरज श्रीवास्तव

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इनके-उनके सबके मन को खलता रहता हूँ!
हुई जेठ की धूप ज़िन्दगी जलता रहता हूँ!

सपनों में ही छुपकर मिलने
खुशियाँ मेरे घर आएँ!
होंठ चूमती रोज निराशा
नयन मिलातीं आशाएँ!

साँझ ढले इस मन को मैं बस छलता रहता हूँ!
हुई जेठ की धूप ज़िन्दगी जलता रहता हूँ!

तुम बिन मरना है जी-जीकर
पर मरने तक जीना है!
पग-पग पर विष मिले भले ही
हँसकर मुझको पीना है!

चंद लकीरें लिए, हाथ बस मलता रहता हूँ!
हुई जेठ की धूप ज़िन्दगी जलता रहता हूँ!

भटक रहा हूँ जीवन पथ पर
खोज रहा हूँ रोटी मैं!
काट रहा हूँ अपने तन पर
प्रियवर रोज चिकोटी मैं!

बिना रुके मैं, बिना थके बस चलता रहता हूँ!
हुई जेठ की धूप ज़िन्दगी जलता रहता हूँ!