भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
एक दिन की बात है / तेजी ग्रोवर
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 22:49, 19 नवम्बर 2017 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=तेजी ग्रोवर |संग्रह=लो कहा साँबर...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
एक दिन की बात है मैंने लिख दिया —
दिन
कैसे
कितने
चप्पुओं से खेना है
लोहे की नाव-सा
धँसता
हुआ दिन
कौन दिन तुम तक पहुँचे
फिर एक और दिन की बात है मैंने सोचा
वाह
एक तो लिख दिया लोहे की नाव-सा दिन
ऊपर से धँसता हुआ भी लिख दिया
मान लिया कि इसे ठीक किया जा सकता है
(हालाँकि ठीक!
ठीक किए हुए में भी यह भूल
नग
की
तरह जड़ी जाएगी मूरख)
मान लिया कि प्रेम में आप सड़क तक पार करने लायक नहीं रहते
बोलो मान लें आज वही है दिन कि नहीं
जब संगीत में चूर कोई राजा छोड़ गया है महल
टेढ़ी बिन्दी वाली कई बन्दी औरतें रिहा हो रही हैं
प्रेम कविताओं के शिल्प अपराध सब मुआफ़ हैं
मुआफ़ हैं शमशेर
मुआफ़ हैं मुआफ़ हैं
मरीना स्वेताएवा