लो कहा साँबरी (कविता) / तेजी ग्रोवर
(कविता के साथ और बिना)
मन के ठगद्वार पर
यह जो इस वक्त यहाँ ठहरी है
सींचने की इच्छा से रिसी हुई यह बूँद
इसे ‘साँबरी’ कहें
चलो देखें
कहने से क्या होता है
लो कहा — साँबरी<ref>जादूगरनी</ref>
देखें
फल एकदम रसते हैं या नहीं
कच्चियाँ धूप में छलने की हद तक पकती हैं या नहीं
कहें
साँबरी
ओसभरी
बुँदनिया
भ्रमणिया
प्यार के छलावे
भुलावे तक रुलाएगी न!
तू
जो खीरे में भरती है ज़ार-ज़ार झाग
फिर अपने आप फीकी मिठास में शान्त
स्वाद पर ठहर भी जाती है —
साँबरी ओ साँबरी
कुत्ता ज्यों पागल कोई
काटते हुए रुक जाए
एक पिल्ले की ओस-सी आँख में
देखते हुए बचपन की सुबह
यूँ मौन हो जाए
जैसे खीरे में स्वाद
सुन रही हो, साँबरी
फल से खीरा वहाँ से कुत्ता और मौन
यह हाँफ़ते हुए बिम्ब का बदलते जाना
ऐसे में भी दिल का बह ही न पाना
कितना उदास होता है
कि इसे कहना उदास
नदी में डूब जाने की प्यास है
साँबरी
आह
साँबरी
अनिश्चित समयों की उदार आत्मीया
इसी पल
सूख रही है न!
कैसे बताऊँ क्या होगा
क्या होगा —
कैसे प्रपंच किए जाने हैं
कितनी धूनियाँ
कितने मन रमाने हैं
तेरे छोड़े हुए बिन्दु-स्थल पर
लीलाएँ
विनाश की
अन्तहीन होनी हैं