भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
उन वाक्यों में / तेजी ग्रोवर
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 01:44, 20 नवम्बर 2017 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=तेजी ग्रोवर |अनुवादक= |संग्रह=अन्...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
उन वाक्यों में वाक्य अभी नहीं आए थे और वे पंखहीन
चिड़ियों की तरह दयनीय थे। उन्हें देखकर पता नहीं चलता
था ये वाक्य शुरू हो रहे हैं या ख़त्म। करुणा का रंग नीले
के आसपास ही था, और किसी जगह टेक नहीं लेता था
मन। बची-खुची सृष्टि का व्यापार हम अपने ख़रीदे हुए
दानों से चलाने की कोशिश करते। दीवार पर किसी भी
क्षण दो टाँगों पर खड़ी गिलहरियाँ भय और फुर्ती से उन्हें
कुतर रही होतीं। उन्हें देखकर यक़ीन नहीं होता था ये
कविताएँ अन्त की हैं। कभी-कभी होता था और तब वे
हमें रुलाने लगतीं, बेटियों की तरह।
हमारे हिस्से का अन्त बहुत भारी लगता था हमें, जो ख़ुद
को अलग रख कुछ भी देख नहीं पाते थे।