भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

कर्दम के लिए / जय प्रकाश लीलवान

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 20:08, 20 नवम्बर 2017 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=जय प्रकाश लीलवान |अनुवादक= |संग्र...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

कर्दम, मेरे दोस्त !
ठीक मेरी तरह
तुम्हारी बहिन को भी
इस देश के जमींदारों की कसाई नज़रों से
रोना आया होगा

मेरी माँ की तरह
तुम्हारी माँ ने भी
इनकी माणसखाणी करतूतों से
हमारी सलामती की
दुआ माँगी होगी
 
‘अरे ओ गयन्ढल चुप रह’ जैसे ‘सांस्कृतिक राष्ट्रवाद’ के सामने
तुम्हारे बाप की दाढ़ी भी
मेरे पिता की तरह
केवल हिलकर रह गई होगी
 
और तुम भी मेरी तरह
यही सोचते होगे कि
जाति-प्रथा के
इस उमस भरे साम्राज्य को
अब उलट देना चाहिए।

हो सकता है
कर्दम, मेरे अजीज दोस्त
मेरे और तुम्हारे आवास एक न हों
लेकिन हम पर झपटने वाले
दमन तो
एक ही परम्परा के तम्बू से निकलकर
हमारी गर्दनों तक पहुँचते हैं

और मुँह-अन्धेरे माँगे गए सीत से
बासी खुरचन खाकर
स्कूल जाने की
ज़िद के बावजूद
मेरी तरह
तुम्हारे तख़्ती-बस्तों को भी
ठाकुर, जाट, ब्राह्मणों के बिगड़ैल बेटों ने
फुटबाल की तरह खेलकर
तुम्हें भी रुलाया होगा
 
यही वह दर्द है
जो मेरे मुँह की बात को
तुम्हारे दिल में दफ़्न
सच्चाई की सगी बहिन
बना देता है
 
इस कपट भरी
परम्परा की कमर तोड़ने वाली
तुम्हारी क़लम और मेरी कविता
आने वाले कल को
उसकी परिभाषा देगी

और कपट को
कला के कपड़े पहनाते आए
साधुओं के सफ़र का
काँटा होना ही
उनके साथ
हमारी साझेदारी समझी जाएगी
 
अब यह निश्चित है, कर्दम, कि उदारवाद का कोई भी साहित्यकार
जातियों से झुलसती
तेज़ धूप में
प्यासे मर रहे
हमारे लोगों को
पानी पिलाने नहीं आएगा
 
कर्दम, हमारे हकों की महक
हमारी पीढ़ियों के
खाद बन जाने की शर्त पर टिकी है
सत्ता के चन्द्रभान बनने पर नहीं
 
और जीवन से इश्क करने की
मौलिक शर्त यह भी है
कि आज के उदास समय को
क्रान्ति के नग्मों में ढालने के लिए
जातियों के घास-फूँस में
माचिस लगाने
हमें ही चलना होगा।