भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

गंगा, बहती हो क्यूँ / नरेन्द्र शर्मा

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 20:58, 24 जून 2008 का अवतरण (New page: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=नरेन्द्र शर्मा }} विस्तार है अपार.. प्रजा दोनो पार.. करे ...)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

विस्तार है अपार.. प्रजा दोनो पार.. करे हाहाकार...

निशब्द सदा ,ओ गंगा तुम, बहती हो क्यूँ ?

नैतिकता नष्ट हुई, मानवता भ्रष्ट हुई,

निर्लज्ज भाव से , बहती हो क्यूँ ?

इतिहास की पुकार, करे हुंकार,

ओ गंगा की धार, निर्बल जन को, सबल संग्रामी,

गमग्रोग्रामी,बनाती नहीँ हो क्यूँ ?

विस्तार है अपार ..प्रजा दोनो पार..करे हाहाकार ...

निशब्द सदा ,ओ गंगा तुम, बहती हो क्यूँ ?

नैतिकता नष्ट हुई, मानवता भ्रष्ट हुई,

निर्ल्लज्ज भाव से , बहती हो क्यूँ ?

इतिहास की पुकार, करे हुंकार गंगा की धार,


निर्बल जन को, सबल संग्रामी, गमग्रोग्रामी,बनाती नहीं हो क्यूँ ?

इतिहास की पुकार, करे हुंकार,ओ गंगा तुम, बहती हो क्यूँ ?


अनपढ जन, अक्षरहीन, अनगिन जन,

अज्ञ विहिन नेत्र विहिन दिक` मौन हो क्यूँ ?

व्यक्ति रहे , व्यक्ति केन्द्रित, सकल समाज,

व्यक्तित्व रहित,निष्प्राण समाज को तोड़ती न क्यूँ ?

ओ गंगा की धार, निर्बल जन को, सबल संग्रामी,

गमग्रोग्रामी,बनाती नहीं हो क्यूँ ?


विस्तार है अपार ..प्रजा दोनो पार..करे हाहाकार ...

निशब्द सदा ,ओ गंगा तुम, बहती हो क्यूँ ?

अनपढ जन, अक्षरहीन, अनगिनजन,

अज्ञ विहिननेत्र विहिन दिक` मौन हो कयूँ ?

व्यक्ति रहे , व्यक्ति केन्द्रित, सकल समाज,

व्यक्तित्व रहित,निष्प्राण समाज को तोडती न क्यूँ ?

विस्तार है अपार.. प्रजा दोनो पार.. करे हाहाकार...

निशब्द सदा ,ओ गंगा तुम, बहती हो क्यूँ ?