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अशेष समर / जयप्रकाश त्रिपाठी

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मैंने जब-जब लिखना चाहा, कभी नहीं लिख पाया तुमको।
मैंने जब-जब पढ़ना चाहा, कभी नहीं पढ़ पाया तुमको।
तुम इतना क्यों ऐसे-ऐसे।
मैंने जब-जब सुनना चाहा, कभी नहीं सुन पाया तुमको,
मैंने जब-जब कहना चाहा, कभी नहीं कह पाया तुमको,
तुम इतना क्यों ऐसे-ऐसे।
मैंने जब-जब मिलना चाहा, कभी नहीं मिल पाया तुमसे,
संग-साथ जब जुड़ना चाहा, कभी नहीं जुड़ पाया तुमसे,
तुम इतना क्यों ऐसे-ऐसे।

लिखना-पढ़ना, कहना-सुनना, मिलना-जुलना रहा न सम्भव,
जन में तुम-सा, मन में तुम-सा, रचना के जीवन में तुम-सा,
सहज-सहज सा, सुन्दर-सुन्दर, मुक्त-मुक्त सा, खुला-खुला सा,
ओर-छोर तक युगों-युगों से आदिम बस्ती-बस्ती होकर,

शिशु की हँसी-हँसी में तिरते, रण में भी क्षण-प्रतिक्षण घिरते,
माँ के मुँह से लोरी-लोरी, युद्ध समय में गगन-गूँज तक,
आर्तनाद से घिरे-घिरे वे दस्यु न जाने अब तक तुमको
ठगने और लूटने वाले, वे समस्त जाने-अनजाने,

संघर्षों का वह इतिहास अधूरा अब भी
रक्तबीज सा, धर्मराज सा अथवा अब के राज-काज में
इस समाज में श्रम से, सीकर से, शोणित से सिंचित
जीवन के जंगल में खिंची-खिंची प्रत्यँचाओं पर

उत्तर में भी, दक्षिण में भी, धरती से नभ तक अशेष
जग को रचते-रचते, ढोते-ढोते थके न फिर भी, चले आ रहे,
चले आ रहे अन्तहीन, अविरल, अपराजित,
ऐसे किसी समय की निर्णायक बेला को,

उन सब के गाढ़े-गाढ़े सब अन्धेरों को ढँक देने को
उफन रहे आक्रोश लिये अन्तस में अपने रोष लिए
किलो, मठों के ढह जाने तक, टूट-टूट कर,
बिखर-बिखर कर उनका रौरव मिट जाने तक,

मैंने तुमको लिखना चाहा, पढ़ना चाहा, कहना चाहा, सुनना चाहा,
क्योंकि तुम, बस तुम हो ऐसे आओ-आओ, हम हैं इतने,
इतने हम हैं, इतने-इतने, हम हैं ऐसे,
आओ अभी अशेष समर है !