भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
बिम्ब थक भी जाते हैं / रुस्तम
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 02:42, 26 नवम्बर 2017 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=रुस्तम |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KKCatKavita}} <poe...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
बिम्ब
थक भी जाते हैं मुझसे
और
बिम्ब होने से।
निश्चित ही
उनके धैर्य की कोई सीमा है
धृष्ट
इस अजनबी के लिए।
निश्चित ही
वे स्वप्न लेते हैं
भिन्न एक दुनिया का
जिसमें कि वे प्रत्यय हैं।
फिर वे
प्रत्यय न होने का
स्वप्न भी लेते हैं।