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घर : एक सहमा हुआ अहसास / गोविन्द माथुर

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ढाई कमरों के

घरनुमा मकान के कोनो में

अपना दुबका हुआ बचपन

पलस्तर उखड़ी दीवारों पर

किशोरावस्था में लिखे

अपने नाम के

अक्षर ढूंढता हूँ

दुबका हुआ बचपन

माँ की छातियों से सट कर

एक आश्वस्त

गर्माहट महसूस करता था

घर को ललकता था


एक विश्वास भरी

आशा के साथ

घर की दीवारों पर

अपना नाम लिख कर

ढाई कमरों के मकान को

कोही हो जाते देखता था


जिसके दरवाज़े पर

सुनहरी तख़्ती पर

मेरा नाम होता था


आज घर की

दीवारों को देख कर

डर जाता हूँ

पलस्तर उखड़ी दीवारें

बरसात में टपकती छत

उखड़ा हुआ फर्श

चूहों के बिल हुए कोने


सहमा-सहमा सा

अपराधी सा

कहीं दुबक जाता हूँ