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लकड़ी का सन्दूक / गोविन्द माथुर

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इतना बडा लकड़ी का सन्दूक

पूरे पैर फैला कर

जिस पर सो सकता था बचपन

देख सकता था स्वप्न


एक बूढ़ी औरत

जो उठ कर चलती नही थी

घिसट-घिसट कर

बार-बार आती है सन्दूक के पास


सन्दूक से उछलती हैं

कुछ पोटलियाँ

पोटलियों में भरा तिलस्म

एक अजीब-सी गंध देते कपडे

घिसे हुए बर्तन

गंगाजली की शीशी

न पहचान में आने वाला

पुरी के जगन्नाथ का चित्र

कई बार खुलती

बन्द होती पोटलियाँ


चुपचाप किवाड़ों की दरारों से

झाँकता एक बच्चा सोचता है इस ही सन्दूक में है

कहीं न कहीं अल्लादीन का चिराग

खुल जाऽऽऽऽ सिमसिम.... बन्द हो जाऽऽऽऽ सिमसिम...


सन्दूक में लग गई है दीमक

चाट गई सारा तिलस्म

एक झूठी कहानी साबित हुआ

अल्लादीन का चिराग


अब कोई बुढ़िया

घिसटती हुई नही आती वहाँ तक


बचपन आज भी

सन्दूक के किसी कोने में दबा है

लेकिन अब सन्दूक पर

पूरे पैर नहीं फैलते।