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अन्धेरे अभी आशियानों में हैं / देवमणि पांडेय

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अन्धेरे अभी आशियानों में हैं।
उदासी के मंज़र मकानों में हैं।

ज़ुबाँ वाले भी काश समझें कभी
वो दुःख-दर्द जो बेज़ुबानों में हैं।

परिन्दों की परवाज़ कायम रहे
कई ख़्वाब शामिल उड़ानों में हैं।

घरों में हैं महरूमियों के निशाँ
कि अब रौनक़ें बस दुकानों में हैं

कहाँ ग़ुम है मंज़िल पता ही नहीं
निगाहें मगर आसमानों में हैं।

मुहब्बत को मौसम ने आवाज़ दी
दिलों की पतंगें उड़ानों में हैं।