भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
अन्धेरे अभी आशियानों में हैं / देवमणि पांडेय
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 00:04, 3 दिसम्बर 2017 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=देवमणि पांडेय |अनुवादक= |संग्रह= }} {...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
अन्धेरे अभी आशियानों में हैं।
उदासी के मंज़र मकानों में हैं।
ज़ुबाँ वाले भी काश समझें कभी
वो दुःख-दर्द जो बेज़ुबानों में हैं।
परिन्दों की परवाज़ कायम रहे
कई ख़्वाब शामिल उड़ानों में हैं।
घरों में हैं महरूमियों के निशाँ
कि अब रौनक़ें बस दुकानों में हैं
कहाँ ग़ुम है मंज़िल पता ही नहीं
निगाहें मगर आसमानों में हैं।
मुहब्बत को मौसम ने आवाज़ दी
दिलों की पतंगें उड़ानों में हैं।