रश्मिरथी / चतुर्थ सर्ग / भाग 4
सहम गया सुन शपथ कर्ण की, हृदय विप्र का डोला,
नयन झुकाए हुए भिक्षु साहस समेट कर बोला,
'धन की लेकर भीख नहीं मैं घर भरने आया हूँ,
और नहीं नृप को अपना सेवक करने आया हूँ.
'यह कुछ मुझको नहीं चाहिए, देव धर्म को बल दें,
देना हो तो मुझे कृपा कर कवच और कुंडल दें.'
'कवच और कुंडल!' विद्युत छू गयी कर्ण के तन को;
पर, कुछ सोच रहस्य, कहा उसने गंभीर कर मन को.
'समझा, तो यह और न कोई, आप, स्वयं सुरपति हैं,
देने को आये प्रसन्न हो तप को नयी प्रगती हैं.
धन्य हमारा सुयश आपको खींच मही पर लाया,
स्वर्ग भीख माँगने आज, सच ही, मिट्टी पर आया.
'क्षमा कीजिए, इस रहस्य को तुरत न जान सका मैं,
छिप कर आये आप, नहीं इससे पहचान सका मैं.
दीन विप्र ही समझ कहा-धन, धाम, धारा लेने को,
था क्या मेरे पास, अन्यथा, सुरपति को देने को?
'केवल गन्ध जिन्हे प्रिय, उनको स्थूल मनुज क्या देगा?
और व्योमवासी मिट्टी से दान भला क्या लेगा?
फिर भी, देवराज भिक्षुक बनकर यदि हाथ पसारे,
जो भी हो, पर इस सुयोग को, हम क्यों अशुभ विचरें?
'अतः आपने जो माँगा है दान वही मैं दूँगा,
शिवि-दधिचि की पंक्ति छोड़कर जग में अयश न लूँगा.
पर कहता हूँ, मुझे बना निस्त्राण छोड़ते हैं क्यों?
कवच और कुंडल ले करके प्राण छोड़ते हैं क्यों?