भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

रश्मिरथी / चतुर्थ सर्ग / भाग 5

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज


<< चतुर्थ सर्ग / भाग 4 | चतुर्थ सर्ग / भाग 6 >>


'जनमा जाने कहाँ, पला, पद-दलित सूत के कुल में,

परिभव सहता रहा विफल प्रोत्साहन हित व्याकुल मैं,

द्रोणदेव से हो निराश वन में भृगुपति तक धाया

बड़ी भक्ति कि पर, बदले में शाप भयानक पाया.


'और दान जिसके कारण ही हुआ ख्यात मैं जाग में,

आया है बन विघ्न सामने आज विजय के मग मे.

ब्रह्मा के हित उचित मुझे क्या इस प्रकार छलना था?

हवन डालते हुए यज्ञा मे मुझ को ही जलना था?


'सबको मिली स्नेह की छाया, नयी-नयी सुविधाएँ,

नियति भेजती रही सदा, पर, मेरे हित विपदाएँ.

मन-ही-मन सोचता रहा हूँ, यह रहस्य भी क्या है?

खोज खोज घेरती मुझी को जाने क्यों विपदा है?


'और कहें यदि पूर्व जन्म के पापों का यह फल है.

तो फिर विधि ने दिया मुझे क्यों कवच और कुंडल है?

समझ नहीं पड़ती विरंचि कि बड़ी जटिल है माया,

सब-कुछ पाकर भी मैने यह भाग्य-दोष क्यों पाया?


'जिससे मिलता नहीं सिद्ध फल मुझे किसी भी व्रत का,

उल्टा हो जाता प्रभाव मुझपर आ धर्म सुगत का.

गंगा में ले जन्म, वारि गंगा का पी न सका मैं,

किये सदा सत्कर्म, छोड़ चिंता पर, जी न सका मैं.


'जाने क्या मेरी रचना में था उद्देश्य प्रकृति का?

मुझे बना आगार शूरता का, करुणा का, धृति का,

देवोपम गुण सभी दान कर, जाने क्या करने को,

दिया भेज भू पर केवल बाधाओं से लड़ने को!


'फिर कहता हूँ, नहीं व्यर्थ राधेय यहाँ आया है,

एक नया संदेश विश्व के हित वह भी लाया है.

स्यात, उसे भी नया पाठ मनुजों को सिखलाना है,

जीवन-जय के लिये कहीं कुछ करतब दिखलाना है.


'वह करतब है यह कि शूर जो चाहे कर सकता है,

नियति-भाल पर पुरुष पाँव निज बल से धर सकता है.

वह करतब है यह कि शक्ति बसती न वंश या कुल में,

बसती है वह सदा वीर पुरुषों के वक्ष पृथुल में.


'वह करतब है यह कि विश्व ही चाहे रिपु हो जाये,

दगा धर्म दे और पुण्य चाहे ज्वाला बरसाये.

पर, मनुष्य तब भी न कभी सत्पथ से टल सकता है,

बल से अंधड़ को धकेल वह आगे चल सकता है.


'वह करतब है यह कि युद्ध मे मारो और मरो तुम,

पर कुपंथ में कभी जीत के लिये न पाँव धरो तुम.

वह करतब है यह कि सत्य-पथ पर चाहे कट जाओ,

विजय-तिलक के लिए करों मे कालिख पर, न लगाओ.


'देवराज! छल, छद्म, स्वार्थ, कुछ भी न साथ लाया हूँ,

मैं केवल आदर्श, एक उनका बनने आया हूँ,

जिन्हें नही अवलम्ब दूसरा, छोड़ बाहु के बल को,

धर्म छोड़ भजते न कभी जो किसी लोभ से छल को.


'मैं उनका आदर्श जिन्हें कुल का गौरव ताडेगा,

'नीचवंशजन्मा' कहकर जिनको जग धिक्कारेगा.

जो समाज के विषम वह्नि में चारों ओर जलेंगे,

पग-पग पर झेलते हुए बाधा निःसीम चलेंगे.


'मैं उनका आदर्श, कहीं जो व्यथा न खोल सकेंगे,

पूछेगा जग; किंतु, पिता का नाम न बोल सकेंगे.

जिनका निखिल विश्व में कोई कहीं न अपना होगा,

मन में लिए उमंग जिन्हें चिर-काल कलपना होगा.


'मैं उनका आदर्श, किंतु, जो तनिक न घबरायेंगे,

निज चरित्र-बल से समाज मे पद-विशिष्ट पायेंगे,

सिंहासन ही नहीं, स्वर्ग भी उन्हें देख नत होगा,

धर्म हेतु धन-धाम लुटा देना जिनका व्रत होगा.


'श्रम से नही विमुख होंगे, जो दुख से नहीं डरेंगे,

सुख क लिए पाप से जो नर कभी न सन्धि करेंगे,

कर्ण-धर्म होगा धरती पर बलि से नहीं मुकरना,

जीना जिस अप्रतिम तेज से, उसी शान से मारना.


<< चतुर्थ सर्ग / भाग 4 | चतुर्थ सर्ग / भाग 6 >>