भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

हत्यारा / कुमार मुकुल

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 22:12, 26 जून 2008 का अवतरण (New page: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=कुमार मुकुल |संग्रह=ग्यारह सितम्बर और अन्य कविताएँ / क...)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

शहर और कस्बे की

मुठभेड़ कराती

उस सड़क के आस-पास

जिधर

पड़ता था

आम और बेर का जंगल

इलाका था उसका

जिधर

घूमा करता था वह

कमरबन्द में चाकू

और पगड़ी में मुँह छुपाए

जहाँ कभी घूमा करते थे सियार

भुट्टों की खेती के आस-पास

भेड़ों के झुंड में

गड़ेरिए के साथ

उन्हीं की-सी सूरत निकाले

छिपा फिरता था वह

जितना ही गहराता था अंधेरा

उभरता था उसका चेहरा उतना ही

और

भूले-भटके बटोही की

घिग्घी बंध जाती थी


यह सब बीते दिनों की बातें हैं

याद करते हैं लोग

उस वक़्त होते थे हत्यारे

फिर भी लोग साहसी होते थे


अब तो

रिवाज ही बदल गया है

जगह-जगह लगा दी गई हैं आरियाँ

अनवरत चलती रेतियाँ

और लोग

जमात की जमात गरदनें लिए

चले आ रहे हैं


अब हत्यारे

खोते जा रहे हैं अपना चेहरा

अपनी क्रूरता

विज्ञान की चकाचौंध ने

सबसे ज्यादा लूटा है

उनके हिस्से का अन्धकार

आज एक मिटती प्रजाति हैं वे

भयानक पर निरीह

अभयारण्यों में जगह और

इतिहास में शरण

की मांग करते हुए

पूछते हुए कि क्या

उनके इतिहास में ज्यादा ख़ून है

कि हमारे आदिकवि तुम्हारे नहीं

अंगुलिमाल होते हुए भी

हमने पहचाना बुद्ध को

गांधी को पहचान सके तुम

और तो और

लुटेरे गजनी को भी

लूटा था हमने

क्योंकि

हम तो थे ही हत्यारे, लुटेरे, बटमार।