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सुगना मुण्डा की बेटी-4 / अनुज लुगुन

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सुगना मुण्डा की बेटी

डोडे —
जरा सोचो!
वह पहाड़ जिसकी पूजा से बसन्त खिल उठता है
उसे दफना दिया जाय तो
सूरज क्यों न अपनी दिशा खो दे
सूरज क्यों न क्रोधित हो जाय
उसकी उस सीढ़ी को उसके
रास्ते से हटा दिया जाय तो
क्यों न वह आग उगलेगा।
ध् 145
सहजीविता की समझ ही ज्ञान है
संवेदनाओं, अनुभूतियों की पहचान ही ज्ञान है
ज्ञान प्रतिस्पर्धा नहीं प्रेम सिखाता है
प्रकृति और मनुष्य
मनुष्य और प्रकृति की सहजीविता
समूह में संभव है
इसे सींचना पड़ता है
अब यह तुम सबका दायित्व है कि
इसका बीजारोपण आगामी पीढ़ी में करो,
ज्यों-ज्यों इसके बीज
अंकुरित होंगे, पुष्पित होंगे, फलित होंगे
त्यों-त्यों बाघ पर अंकुश लगेगा
और तब ही रोग निवारण के लिए
औषधियों का अस्तित्व रहेगा
उसी के अस्तित्व से नियंत्रित होंगे प्राकृत-अप्राकृत बाघ’’
डोडे की बातों से
सातों जनों के मन में लहर उठती
वे सोचते, गुनते, मथते
सामने मिट्टी का दीया
हवा के झोंकों से हिलता-डुलता
कभी बुझने को होता
कभी अचानक ही उसकी लौ दहक उठती
वैद्य कहते जाते और
परीक्षार्थियों के चेहरे की भंगिमा को भी परखते जाते
और उनकी भौंहों की रेखाएं सिकुड़ती-फैलती जाती
‘क्या सातों जन सफल होंगे
या फिर कोई एक-दो ही
उसके ज्ञान को ग्रहण कर सकेंगे?
आजीवन साधना का परिणाम
निजी सफलताओं में नहीं
आगामी पीढ़ी की सफलताओं से सिद्ध होता है
तो क्या उनके जीवन की साध अधूरी रह जाएगी?
एक साथ सात जनों की सफलता की साध
जो अब तक संभव नहीं हुआ है उनके गुड़ी की दुनिया में?
परिस्थितियों की प्रस्तुति
और उसके सन्दर्भों की व्याख्या कर
146 ध्
गुड़ी परीक्षा के लिए आवश्यक निर्देश देते हुए
डोडे वैद्य ने फिर कहना शुरू कियाµ
‘‘घनी काली रात
इतनी काली कि
सामने कोई भी दिख न रहा हो
केवल प्रतीति हो किसी आकृति के उभरने की
मिथ्या और भ्रम उत्पन्न करने वाली
ऐसी ही काली अँधेरी रात में उभरती
आकृतियों को पहचानने की परीक्षा है यह,
आदमी को आदमी और
बाघ को बाघ के रूप में
पहचानने की क्षमता आती है
उसके व्यवहार के अतिरिक्त
जीवन अनुभवों के साथ
इतिहास, दर्शन और विज्ञान की भी पड़ताल से
हमारे लिए रात का आशय
‘पहर’ के रात भर से नहीं है
बल्कि दिन के उजालों में फैले
जन के विरुद्ध संस्थागत कृत्यों से है
ठीक वैसे ही जैसे
रोग का आशय सिर्फ’
दैहिक-मानसिक रोग से नहीं
बल्कि व्यवस्था रूपायित रोग से भी है,
यही विचार गितिः ओड़ाः, धुमकुड़िया, घोटुल
और पड़हा के गणतंत्रा का विस्तार करेगा
सहधर्मियों को अपने संघर्ष में
शामिल होने का अवसर देगा
अँधेरे के साम्राज्य के समूल नाश के लिए
सहधर्मियों के संघर्ष का साथ होना जरूरी है’’
उनके सामने धुअन की
महक उड़ती रही
उसके नशे में जैसे वहाँ सब धीरे-धीरे
मदहोश हो रहा था
कुछ पल आँखों को और गंभीरता से मीचते हुए डोडे ने कहा
‘‘जैसे ‘अहद् सिंग’ को लाँघने के बाद
मनुष्य घर का रास्ता भूल
ध् 147
नदी, पहाड़, जंगलों में
वर्तमान से इतर यथार्थ की दुनिया में पहुँच जाता है
वैसे ही तुम भी पहुँचोगे
अपने वर्तमान देश, काल, परिवेश से इतर
अपने ही जीवन से सम्बद्ध यथार्थ में,
सब कुछ असामान्य प्रतीत होगा
लेकिन वह सामान्य ही होगा
कई बार तुम्हें अपने ही जीवन की प्रतीति होगी
कई बार अपने दुनियावी अनुभव से परे जीवन की प्रतीति होगी
किन्तु वह सत्य और यथार्थ ही होगा
ज्ञान का नया अनुभव होगा
भले ही वह कभी भी जीवन के अनुभव में न रहा हो
जो सत्य तो होगा किन्तु अविश्वसनीय भी प्रतीत होगा
यहीं से तुम्हें मिलेगी
रोग के कारक और निवारक को पहचानने की शक्ति,
और जब तुम लौटोगे
उस अवास्तविक-वास्तविक दुनिया से, तो होगी
नयी सुबह, नयी दिशाएँ, और नया जीवन
तुम सात जन होगे सात जीवन
सात अनुभव, सात ज्ञान,
लेकिन तब तक रास्ते में होंगे
जहरीले साँप, कीड़े-कॉक्रोच
रेत, दलदल, तूफान, विस्फोट
और भयावाह परिस्थितियाँ
तुम्हें इन सबसे लड़ना ही होगा,
अब मैं यह लाठी धरता हूँ
मंतर शुरू करता हूँ
मंतर नहीं, यह गीत गाता हूँ
‘‘तन मन जन
को घेरे हैं जहरीले फन
पेड़ पहाड़ तितली जुगनू
सभी सहजीवी होंगे मृत
या होंगे अधिकृत
रात शशिधर
जब होगी बिषधर
सुनो सपेरे स्याह सवेरे
148 ध्
कैसे तोड़ोगे विष के घेरे
सात जनों की सात कथा
रहेगी तब तक यही व्यथा
तन की, मन की, जन की’’
अरे, यह क्या?
मंतर का असर होता है
नहीं गीत ही जीवन में घुलता है
जीवन रूपायित होता है गीत में,
देखो, पहला ध्यानस्थ देखता हैµ
‘‘नृतत्वशास्त्राी खेत में फसलों
की किस्मों को अलग कर रहे हैं
वे एक खास किस्म की
फसल की तरफ संकेत करते हुए
कहते हैं कि इनकी प्रजाति एक ही है
एक ही मूल के हैं ये
कोल, भील, मुण्डा, संथाल, गोंड, खरवार
बैगा, मुड़िया, कोंड, कोया, पहाड़िया,
ऐसे ही और भी सभी,
जिनका एक ही सहजीवी दर्शन रहा है,
एक नृतत्वशास्त्राी कहता है
कि जब घुमन्तु ग्रह की ठोकर लगी थी जबरदस्त
ये टुकड़ों में बिखर गए
सभी दिशाओं में, सभी भौगोलिक कोनों में,
वह ग्रह टूटा नहीं बल्कि
वह उनकी ही जमीन पर गिरा
और उनके आधे से अधिक
जमीन पर जबरन काबिज हो गया
अब जमीन के लिए संघर्ष शुरू हुआ
और इसके साथ ही शुरू हुआ दानवों का जन्म
उस ग्रह के लोग जितना
अपने जीतने का दावा करते
उतना ही देवताओं और दानवों का जन्म होता गया,
उस नृतत्वशास्त्राी के पास
एक युवा शोधार्थी आता है और कहता है
‘नहीं रहे अब सब एक-से
ध् 149
एक-सा नहीं रहा उनका सहजीवी दर्शन
धर्म में, नस्ल में, रंग में बाँट दिए गए हैं ये
ये ही नहीं, पूरी मनुष्यता ही बँटी है धरती पर’
ज्यों-ज्यों उस ग्रह का प्रभुत्व बढ़ता गया
वे अपना मूल उत्स भूलते चले गए
उनमें से कुछ उसके पंजों में फँसे रह गए
कुछ अलग दूर उनसे लगातार संघर्ष करते रहे
उनका यह संघर्ष आज भी जारी है
उस ग्रह के पंजे में फँसे लोग
मनुष्य होकर भी पशुता-से प्रताड़ित हैं
उससे बाहर के लोग
अपने ‘मनुष्य होने’ के दावे के साथ
उनके पंजों से बचने के लिए लड़ रहे हैं
दोनों की अस्मिता पर प्रश्न चिद्द है
दोनों का अस्तित्व संकट ग्रस्त है
आज उस प्रभु ग्रह की जीभ
उनकी पूरी जमीन को
ग्रस लेने की असीमित लालसा में है
जहाँ उनकी भाषा है, इतिहास है, दर्शन है
और वह ध्यानस्थ देखता है
उस ग्रह की जगह एक विशाल अजगर
उसी की तरफ अपनी जीभ लपलपाता है
वह अजगर के जबड़े में फँसे
अपने लोगों को निकालने के लिए हाथ डालता है
लेकिन उसका हाथ बाजुओं तक फँस जाता है
वह मदद के लिए पुकारता है
और अब उसी प्रभु ग्रह के कुछ न्यायी जन
उसकी मदद के लिए आवाज उठाते हैं
वह उन आवाजों को अपने में मिला लेना चाहता है
आवाज उसकी तरफ बढ़ती है
‘जनवाद! जनवाद! जनवाद!’
‘जन-संस्कृति!’
‘जन-संस्कृति!’
‘जन-संस्कृति!’
के संकल्पबद्ध वैश्विक स्वर के साथ।
150 ध्
दूसरी ध्यानस्थ हैµ
‘‘अरे, मैं यहाँ कहाँ पहुँची हूँµ
संभ्रांत कलात्मक नक्काशी के साथ
सड़कें, चौराहें, गोलंबर सब सजे हैं
दिन में भी बिजली की रोशनी
दीवारों पर हँसते-मुस्कुराते
दमकते हुए विज्ञापन हैं
वाह! कितना आकर्षक है!
वाह! कितना विकास है!
ओह! लेकिन यह किसके चीखने की आवाज है?
दिन का उजाला है, मौसम खुशनुमा है
ऐसे में तो गीत उच्चरित होने चाहिए
लेकिन यह चीख क्यों?
मैं लोगों के पास जाकर
चीख के बारे में पूछती हूँ
आश्चर्य! मेरी छुअन से
वे कछुआ हो गये...
मेरा रोमांच अचानक भय में बदलने लगा है
चीख मेरे सामने और सामने आने लगी है
लेकिन यह क्या चीख मेरे ही कानों को सुनाई दे रही है?
लोगों के अपने-अपने कलात्मक खिड़की-दरवाजे इत्मिनान बंद हैं?
अरे यह क्या?
मैं ही गलियों में अब दौड़ रही हूँ, भाग रही हूँ
अरे नहीं, मैं कहीं नहीं दौड़ रही, कहीं नहीं भाग रही
दरअसल मेरे अन्दर सिनगी दई का खून दौड़ रहा है
फूलो, मकी, झानो का खून दौड़ रहा है
मेरे अंदर मेरी ही माँ-दादी का खून दौड़ रहा है
और मैं तड़पती हँू
इस द्वंद्व से बाहर निकलने के लिए
मैं दिन में पहुँचती हूँ
एक अँधेरी गली में
‘अरे यह क्या...?
यह तो किसी युवती की लाश है?
निरीक्षण करती हूँ आसपास
ध् 151
लोगों की कलात्मक खिड़कियाँ हैं
नक्काशीदार दरवाजे हैं
कलाओं का उत्सव है
वहीं हैं एक ओर सफेद विज्ञापन
और स्त्राी-प्रताड़ना के कानून
इन सबके बीच मुझे दिखाई देती है
एक जीवित स्त्राी की मटमैली आकृति
जिसके हाथ में हथौड़ा है, छेनी है,
हँसुआ है, चूल्हा है, चौकी है,
लेकिन उसके मूल्य का निर्धारण करता हुआ
वहीं पास में धुँआ उड़ाता एक पुरुष है,
मैं युवती की लाश पर झुकती हूँ
उसे गोद में उठाती हूँ
लेकिन अरे यह क्या...?
यह तो समकालीन किसी पत्रिका का ‘स्त्राी-विशेषांक’ है?
उसके आवरण पृष्ठ पर
एक गर्भवती स्त्राी की नंगी तस्वीर छपी है
जिसके गर्भ में दो भ्रूण हैं
एक में बच्चा है, दूसरे में बच्ची है
बच्चे के सिरहाने ताजे फूल रखे हैं
और बच्ची के सिरहाने
सफेद कपड़ों से लिपटा एक ताबूत रखा है,
और उसके अंदर के पृष्ठ पर
एक कोंदरेड्डी महिला की तस्वीर के साथ
विमर्श का विषय चस्पा है
‘बलात्कार शब्द की व्युत्पति’
और किसी ने अपना पक्ष रखा है
‘कम कपडे़ पहनने के बावजूद
आदिवासी समाज की भाषाओं में
उनका मूल शब्द ‘बलात्कार’ नहीं है’
पत्रिका में कामुकता, कुंठा,
अवसाद और निराशा की शब्दावलियाँ
घोटुल, गितिः ओड़ाः,
और धुमकुड़िया के शब्दों के सामने
बौनी और अपाहिज प्रतीत हो रही हैं,
पत्रिका से नजर हटते ही देखती हूँ
152 ध्
लोगों की भीड़ मुझे घूर रही है
मैं घबराकर आदमकद आईने के पास जाती हूँ
मैंने देखा मेरा रूप विचित्रा हो चुका था
मेरी कलाई में चूड़ियों की जगह
बैंक चेक और ड्राफ्ट थे
कान की बालियों की जगह रंगीन चलचित्रा थे
और जूड़े में फूल कि जगह
‘फेयर लोशन’ के विज्ञापन झूल रहे थे
मेरी पूरी देह असीमित वस्तुओं की सूची से भरी थी
मुझे अपनी देह विज्ञापन की होर्डिंग लग रही थी
तभी किसी ने मुझसे कहा
‘अब तुम आदिवासी स्त्राी नहीं हो
और यहाँ आकर
तुम्हारा समाज भी अब आदिवासी नहीं रहा’
मैं उस आदमी को नहीं देख सकी
लेकिन सामने केवल एक शब्द
हवा में जड़हीन तैर रहा था ‘आदिवासी’,
मैंने गौर से खुद को देखा
सचमुच मैं कोंडरेड्डी स्त्राी नहीं थी
और मैं जहाँ थी
वह कोंडों की दुनिया नहीं थी
नहीं थे वे पहाड़
जिसके पूर्वज होने के नाते
कोंड ‘पहाड़ों’ के राजा कहलाए
नहीं थीं वे नदियाँ
जिसका जल लेकर कोंड स्त्रिायाँ
हल जोतने से पहले
अपने असमय मृत बच्चों का
आह्नान करती थीं
बीज बनकर अवतरित होने के लिए,
मैं बेचैन हो उठीµ
मेरी अस्मिता क्या है
क्या मैं कोंडरेड्डी स्त्राी नहीं हूँ
या, वह संभावित स्त्राी हूँ
जिसकी हत्या उस चौराहे पर हुई है
उफ!!...यह द्वंद्व
मुझे हत्या या आत्महत्या के रास्ते पर ले जाएगा।’’
ध् 153
तीसरा ध्यानस्थ देखता हैµ
‘‘अहा! क्या सुन्दरता है!
इतने रंगों का गतिमान समायोजन
इन्द्रधनुष चला आ रहा हो
जैसे उसी की ओर
आसमान से उतर कर धरती पर!
उनके माथे पर
रंग बिरंगे पक्षियों के पंख सजे हैं
पंख ही मुकुट हैं उनके
पूरा समूह बढ़ा आ रहा है उसकी ओर
पहचनता है उन्हें वहµ
‘रेड इंडियंस अबूझमाड़ में
इन्द्रावती का पानी पी रहे हैं
और उन्हें गोरे सैनिकों ने
इस चेतावनी के साथ घेर लिया है कि
पानी की नीलामी देशहित में हो चुकी है
अब वे और उनके घोड़े
बिना अनुमति के
बिना कीमत अदायगी के
पानी नहीं पी सकते हैं
ऐसा करना अपराध है।’
चौथे ध्यानस्थ ने सुने
चेतावनी भरे आज्ञावाचक शब्द
‘शूद्र’! ‘नीच’!
तुम्हारी यह हिम्मत
कि तुम धर्म की नीतियों का उल्लंघन करोगे?
हम इस मंदिर के पुजारी हैं
सदियों से वंशानुगत
हमारे पुरखे इसके पुजारी रहे हैं
और तुम कह रहे हो
कि यहाँ पहले तुम्हारा गाँव था।?