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माँ के प्रति / हरेकृष्ण डेका

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मा, तू सूरज तो नहीं थी,
फिर भी हम छह भाई-बहन
ग्रहों की तरह तेरे चारों ओर
घूमते थे, जाने क्यों;
और तेरी दुनिया घूमती थी
पिता के गिर्द
हमें साथ लिए।

मैं अपनी पहली कविता लिखकर
हिचकता-हिचकता
तेरे पास आया था।
तूने मेरी तरफ़ देखा और
उस वक़्त तुझ-सा सुन्दर कोई नहीं था।
'कुछ चाहिए?' पूछा तूने,
अवाक् मुद्रा में मेरा कविता -पाठ सुनने के बाद
बस इतना बोली, बड़ा आदमी बनेगा तू।

बाद में पता चला बड़ा आदमी
बनने वाली बात
सभी माएं सभी बच्चों को कहती हैं।

बड़ा होने के क्रम में बहुत कविताएँ लिखीं मा,
पर तुझे सुनाता कैसे?
वे गुरु गम्भीर, रोबीली पोशाक वाली,
भावों के अनेक चक्करदार मोड़ों वाली
कविताएँ थीं, नहीं ही सुनाईं तुझे।
इसका बुरा मान गई थी अगर
तो कहा तो कभी नहीं!

अब तेरे लिए आसान कविताएँ लिख रहा हूँ मा,
तू आ पाएगी क्या?
मैं ज़ोर से पढूँ तो
सुन लेगी?

हरेकृष्ण डेका की कविता : ’মা'লৈ’ का अनुवाद
शिव किशोर तिवारी द्वारा मूल असमिया से अनूदित