भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
सुलगते ही रहो दिल की अगन में / कविता सिंह
Kavita Kosh से
Rahul Shivay (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 18:13, 25 दिसम्बर 2017 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=कविता सिंह |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KKCatGha...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
सुलगते ही रहो दिल की अगन में
मज़ा कुछ भी नहीं दारो रसन में
फ़िज़ा में ये ज़हर कैसा घुला है
दिलों में नफ़रतें हैं अब वतन में
अभी धुंधला पड़ा है आइना भी
नहीं है अक्स कोई भी ज़हन में
वो करने आये तब इज़हारे उल्फ़त
बदन लिपटा हुआ था जब कफ़न में
कफ़स में क़ैद जैसे हो परिंदा
है क़ैदी रूह वैसे ही बदन में
शबे तन्हाईयाँ हैं रतजगे हैं
तड़पती है 'वफ़ा' दिल के सहन में