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वस्फ़ इक बारगी कहाँ मिलता / कविता सिंह

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दर्द के कासिद से भी रिश्ता निभाया किस तरह
चश्मे-तर को आईने से भी छुपाया किस तरह

दर्द में डूबी हुई रातें तुम्हारे हिज्र की
कह न पाए के शबे-ग़म ने रुलाया किस तरह

कारवाँ के साथ भी तन्हा चले हम दूर तक
हमसे पूछो फासला हमने मिटाया किस तरह

हसरतें आबाद थीं अरमान थे जागे हुए
पूछ मत दे थपकियाँ उनको सुलाया किस तरह

टूट तो अब हम गये हैं पर अभी बिखरे नहीं
क्या बताएँ हमने ये जीवन बिताया किस तरह

ख़्वाब क्या-क्या थे हँसी जो इस मुहब्बत ने दिए
क्या कहें ताबीर ने पल-पल सताया किस तरह

ज़िंदगी भर ज़ख्म खाकर भी 'वफ़ा' करते रहे-
ज़ख्म को नासूर बनने से बचाया किस तरह