भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
सोचो / कैलाश पण्डा
Kavita Kosh से
आशिष पुरोहित (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 14:01, 27 दिसम्बर 2017 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=कैलाश पण्डा |अनुवादक= |संग्रह=स्प...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
एक रिक्त स्थान
गति देता अंजान
लहरे बनती
भीड़ भरे जीवन में
पा लेना चाहती थाह
अन्ततः प्रेषित होती
उन्मुक्त गगन को
शांत विराट
अनन्त की छाया में
कुछ करना चाहती
बंधन से मुक्त
मानो सर्वत्र हो युक्त
संकीर्ण संकायों के
भ्रम को तोड़
वह कहती
सब मेरे अपने
मैं सबको
क्योंकि उसका वेग
ऊर्ध्वगामी जो होता है।