भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
किराए का कमरा / सैयद शहरोज़ क़मर
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 14:19, 27 दिसम्बर 2017 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार= सैयद शहरोज़ क़मर |अनुवादक= |संग्र...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
किराए का सँकरा कमरा खुलता है
बिल्कुल आर-पार
दिखने लगती है
उलझन की बुनावट
दहकते मई में
हिमालय काकोई शिलालेख
पलस्तर छोड़ता है
अक्षर बदन को गोदते हैं
चादर सुकून की
आकार लेती है
फड़फड़ाते पन्ने क़लम के स्पर्श से
कविता की गोद में
चुपचाप बग़लगीर होते हैं
थके यात्री की तरह
पँखे की हवा माँ की
थपकी दे जाती है
रोज़ पड़ोस की लड़की
चाभी दे जाती है।
08.08.1997
शब्दार्थ
<references/>