भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

हे मेरे अन्तः / कैलाश पण्डा

Kavita Kosh से
आशिष पुरोहित (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 14:24, 27 दिसम्बर 2017 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=कैलाश पण्डा |अनुवादक= |संग्रह=स्प...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

हे मेरे अन्तः
तुम हँसो
आनंद के छोर का स्पर्श कर
जो अनन्त है
उसे पकड़ कर झूलो
झूलते-झूलते बयार भान होगी
तब सारी वासनाएं/क्षीण हो
तुम्हारे लिए राह प्रशस्त करेगी
एक अंधकार
प्रकाश के सात्रिध्य में
धुंधला पड़ता हुआ
तीव्र ज्योति पुञ के रूप मंे
प्रस्फुटित होगा ही
जो तुम्हें दिखलायेगा
तुम्हारी ही अंतर देह को
हे मेरे
ह्र्रदय एवं मस्तिष्क के मध्य
नासिका के अग्रभाग पर
त्रिकोण बना लिया है तुमने तो
इसी अथक प्रयास से
मधुर चाँदनी में बहकर
निकल जाओगे पार्थिव देह से
तब देख सकोगे तुम सर्वत्र।