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राजस्थानी भासा मान है म्हारो / मनोज चारण 'कुमार'

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राजस्थानी भासा मान है म्हारो
जद पांख्या बारै आंख्या खोली, घूंटी दिनी दादोजी,
घणा कोड करया बापूजी, राजी होया काकोजी,
मायड़ मन मै घणी अंजसी, सियाराखड़ी बाँची दादीजी,
माँ रै दूध री पैली बूंद संग, रजथानी भासा झालीजी।
है घणी फूटरी, मनमोणी, आ मरूदेश री भासा,
बड़े शौक सूं बोलै इणनै, रसियन बाला है शाशा,
पण कई करम-खोड़ला बेटा, गरब करै मन मै झूठो,
कैता संको रति नी आवै, नी आवै मायड़ भासा।
बड़ो गरब गुमेज करै, खुद रै मुंडै गुणगाण करै,
हियो फूट्यो डूम रा घोड़ा, मन मांही गुमान करै,
रति नै आवै लाज इणा नै, झूठो तो अभिमान करै,
शरम-बायरा शरम नी राखै, झूठा ही बखाण करै।
मैं जद जद बोलूँ रजथानी, हियो हबोळा खाण लगै,
मैं जद जद बांचू मरुवाणी, म्हारी नई पिछाण बणै,
मैं जद जद मायड़ मै बोलूँ, म्हारी नई ओळखाण बणै,
पण घणी रीस आवै जद कोई, कुचमादी अबखाण करै।
मेवाड़ी है शान जिणारी, राणा-प्रताप री निज भासा,
है घणी मोवणी ढूंढाड़ी, जैपरियै री अभिलासा,
बागड़ी अर मेवाती, हाड़ोती रा रंग घणां गहरा,
मिसरी सी काना मैं घोलै, है मारवाड़ी गज़ब भासा।
सोच समझ’र बोले रै भायाँ, निज भासा बिन्या सन्मान नहीं,
बिना जीभ रो गूंगों ही जाणै, बिन भासा जीणू आसान नहीं,
नहीं जाणो तो कोशिस करल्यो, कोशिस मैं कोई हाण नहीं,
बिन्या भासा तो चुप रैणों पड़सी, अर चुप्पी जिस्यो अपमान नहीं।।