नई रचना यहां जुड़ेगी / घनश्याम चन्द्र गुप्त
तब तुम समझोगी पाषाणी
जीवन के फेनिल समुद्र में उठता ज्वार किसे कहते हैं मृदु मनुहार किसे कहते हैं, अमृतधार किसे कहते हैं प्रियतम के स्वागत में सजती बन्दनवार किसे कहते हैं
आंकोगी जब मूल्य अश्रु का, पदचिन्हों को दोहराओगी तब तुम समझोगी पाषाणी, पागल प्यार किसे कहते हैं
रूप चाँद सा, सूरज सा है, धीरे-धीरे ढल जायेगा रूप पाहुना है दो दिन का, आज नहीं तो कल जायेगा रूप मोम की गुड़िया जैसा, छांव तले तो महक-बहक ले भरी दुपहरी गर्म रेत में पांव पड़े तो गल जायेगा
रूप न होगा जब चंदा सा, सूरज सा, मोमी गुड़िया सा तब पहचानोगी सपनों का राजकुमार किसे कहते हैं
कोलाहल में लुप्त हो गये, कैसे मूक हमारे स्वर थे बनते ही सत्वर मिट जाने वाले अक्षर क्या अक्षर थे प्रश्न-चिन्ह सी देहगन्ध आनाकानी करती आंगन में अनायास बन जाने वाले क्या संबंध सभी नश्वर थे
सत्य सनातन, प्रीति पुरातन, अन्तर में जब लख पाओगी तब तुम जानोगी कल्याणी, प्रत्युपकार किसे कहते हैं
ठोकर लग जाने के भय से मैं पथ से हट जाऊंगा क्या कटु सत्यों से बच, मिथ्या माया की टेक लगाऊंगा क्या क्या मैं अपनी भाषा-परिभाषा से समझौता कर लूंगा ऊब अकेलेपन से भीड़-भड़क्के में खो जाऊंगा क्या
ढूंढोगी जब घर-आंगन में, वन-उपवन में, नगर-गाँव में देखोगी उन्मुक्त प्राण का मुक्त विहार किसे कहते हैं