भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
देवदारु वन / गब्रिऐला मिस्त्राल / अनिल जनविजय
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 20:05, 4 जनवरी 2018 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=गब्रिऐला मिस्त्राल |अनुवादक=अनि...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
चलो, आओ जंगल में चलें।
तुम्हारे चेहरे के पास से गुज़रेंगे पेड़
और मैं उन्हें रोककर कहूँगी — इसे ले लीजिए,
पर वे तुम्हें ग्रहण करने के लिए
नीचे न झुक पाएँगे।
रात देखती है अपने जीवों को
पर देवदारु के पेड़ों को नहीं देख पाती
क्योंकि वे हमेशा एक जैसे बने रहते हैं
पुराने घायल वासन्ती दिनों से आज तक वसन्त
दुग्ध देकर धन्य करता है शाश्वत दोपहरों में।
अगर पेड़ तुम्हें उठा पाते
तो वे तुम्हें उठा लेते अपनी बाहों में
और घाटी-घाटी घुमाते
एक बाँह से दूसरी बाँह
एक पिता से दूसरे पिता की गोद में
बच्चे की तरह मचलते तुम।
अँग्रेज़ी से अनुवाद : अनिल जनविजय