भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

स्वर्ण कलश / लावण्या शाह

Kavita Kosh से
Pratishtha (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 23:52, 28 जून 2008 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

स्वर्ण ~ कलश निकल आया री !
सखी, स्वर्ण ~ कलश नभ पर छाया री !
नर्तन करते , द्रुम - तृण अविरल,
नभ नील सुरभी रस आह्लादित`
सँवेदन मन मेँ, है रवि नभ मेँ,
उज्ज्वल प्रकाश लहराया री !
सखी, स्वर्ण ~ कलश उग आया री !

यन्त्रवत जीवन जन धन मन,
युगान्तर सीमित निकट चित्तभ्रम कलि का सम्मोहन,
वशीकरण बन, मन से मन तक लहराया री !
सखी, स्वर्ण कलश चढ आया री !

नर पुन्गव सब है लौट चले,
युग प्रभात की होड लगी,
युग सन्ध्या आगे दौड पडी,
वामन ह्र्दय, किन्पुरुष कलेवर,
थाम अज्ञ है खडे हुए !
सखी, स्वर्ण कलश अरुणाया री !

युग अन्त प्रतीति प्रकट हुई,
महाकाली मर्दन को उमड पडी,
युग सन्ध्या है निगल रही,
काल अमावस रात की-
कलिका के घून्घर मे जा छिप,
स्वर्ण~ कलश, कुम्हलाया री!
सखी, स्वर्ण कलश ढल जाता री!