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कल कबीर सपने में आया / ज्ञान प्रकाश आकुल

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कल कबीर सपने में आया,
आकर बैठ गया सिरहाने I

मुझसे बोला! इन नगरों के
कंगूरों पर भोर भये क्या?
अब भी कुछ पाखी गाते हैं?,
क्या इस बदली सी दुनिया में
राजमहल के रहने वाले
कबिरा की साखी गाते हैं?
क्या कोई अब भी जाता है
गंगा के तट पर सुस्ताने।

मैं बोला तुम क्यों रोते थे?
चुपके चुपके भीतर भीतर
जब सारी धरती सोती थी ?
क्या दुनिया तब भी ऐसी थी
जैसी अब है या कुछ हटकर
क्यों तुमको पीड़ा होती थी ?
इधर चल रही बात हमारी
उधर लगी थी रात सिराने।

तब तक लाउडस्पीकर गूँजे
भजन अजान लगे टकराने
कोलाहल है गंगा तीरे ,
मैंने उसको जाते देखा
अपनी श्वेत चदरिया ओढ़े
चला गया वह धीरे-धीरे ।
मेरे गालों पर फिर लुढ़के
दो आँसू जाने पहचाने