Last modified on 10 फ़रवरी 2018, at 21:54

चोका 3-4 / रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु'

वीरबाला (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 21:54, 10 फ़रवरी 2018 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

3-गाते किनारे

भीगे नयन
तकते एकटक
हूक-सी उठी
जल छूता ही रहा
दोनों किनारे
थे संग-संग चले
भोर से साँझ
साँझ से भोर तक
व्याकुल मन
सागर छोर तक
मिले न कभी
वे तरसते रहे
जल से जुड़े
तो सरसते रहे
रब से कहा-
क्यों हमें दी दूरियाँ
साथ भी चले
मिली मज़बूरियाँ।’
‘अलग नहीं
जुड़े प्रेम जल से
सोचो तो सही-
इतना भी मिलन
किसका हुआ ?
जो डूबे अहर्निश
भीगते रहे
आदि से अन्त तक
नेह नीर में
आँख भर देखना
होता न कम
ऐसी जागीर मिली
संग जो रहे
फिर भी पीर मिली
मिल न सके
यह कितना सही?
जाना तटों ने -
बहुत कुछ है मिला
चलता रहा
नेह का सिलसिला
करो न गिला
ये लहरें भिगोती
हँसती - रोती
इसीलिए जल को
भाते किनारे
भले मिले न सही
गीत गाते किनारे
-0-

4-लगा पहरा

संवादों पर
अभिवादन पर
सन्देशों पर
गीले आँगन पर
तनी नुकीली
बन्धन की संगीने
वक़्त ठहरा ।
सब आँसू थे पीने
चुप ही रहो
कुछ न अब बोलो
लगा पहरा ।
जो न कहा तुमने
सोचा भी नही
उसको भी सुनता
खड़ा द्वार पे
द्वारपाल बहरा ।
आँखों पे पट्टी
मन में भी जाले हैं
भावों के मुँह पर
जड़ दिए ताले हैं
वो कैसै जाने-
दे दिया है उसने
अनजाने में
घाव यह गहरा ।
अविश्वासों की
खाई नहीं भरती
शंका की रेत
जो आँखों में तिरती
लेना ही जाने
नहीं वो अपना है
प्रेम गली का
टूटा हुआ सपना है
मन पंछी है
फुर्र से उड़ जाता
पाश कोई हो
उसे बाँध न पाता
जीना दो पल
कुछ ऐसा कर लें
अपने सिर
भारी यह गठरी
आरोपों की धरलें ।
-0-