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मेरी मंथर आशाएँ / कविता भट्ट

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रोक रही थी जिनको मस्तिष्क की सीमाएँ,
मन अवसादयुक्त और गहन विस्तृत पीड़ाएँ,

पग धर रही अब सीमाविहीन निरन्तर,
उषा-परों पर झलमल, मेरी कल्पनाएँ, मेरी आशाएँ।

कुछ लजाती, कुछ मुस्काती, शीतल-उज्ज्वल मन में,
हंसी छलकती मुख उसके, लाली सफलता की जीवन में।

पहले बोली थी मुझसे आऊँगी न अब तेरे द्वारे,
रूठ गई तुझसे छोड़ चली तेरे आँगन को प्यारे।

विश्वास के नए परिधान में उसको मैंने मनाया प्रतिपल,
मैं तुझे स्नेह करूँ ओ प्यारी! तू क्यों मुख मोडे़ पल-पल?

अब उसने घूँघट हटाया तनिक,
अविलम्ब बोली उससे मैं ठिठक-

तू क्या जाने वियोग में तेरे मैंने अपना क्या-क्या खोया?
धैर्य गया, स्नेह गया मुस्कान गई मेरे होंठों की।

तम असफलता का छाया था,
काँच के टुकड़ों को-बर्फ समझ मस्तक अपना सेंका था।

आँचल तेरा, हाथों से मेरे- फिसल गया था,
ना मीठी चंचल बातें, तुम्हारे अतिरिक्त न कोई प्रतीक्षा।

मैंने तुम्हंे मना ही लिया अब तुम्हें जाने न दूँगी,
चले न जाना तुम फिर से, कल्पनाओं आशाओं मेरी।

हृद्यभाव सेतु बाँधे काल पर, रुक-रुक कर,
चली आ रहीं हैं मेरी कल्पनाए, मेरी आशाएँ।

लड़खड़ाती किंतु संभलती हुई मंथर-मंथर
चली आ रहीं हैं मेरी कल्पनाएँ, मेरी आशाएँ।