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भाग्य और नियति / सुधेश
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मैं भाग्यवादी नहीं
पर
मेरे साथ
जो अघटित घटा
या घट रहा है
या घटेगा
है मेरी नियति।
भाग्य तो धोखा है
हसीन ख़्वाब-सा
जिसे देखते-देखते
कई बचपन बुढ़ा गए
फिर भी अन्धी आँखों में है
आशा की ज्योति।
घटित और
अघटित के बीच
जीवन बीत रहा
घड़ी के पैन्डुलम-सा।