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मानव पंछी / सुधेश

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यह मानव तो बस पंछी है
          यह इधर उड़ा वह उधर उड़ा।

जिसके पँखों में ताक़त है
वह दूर-दूर उड़-उड़ जाता
कोई इस डाली पर चिंहुका
कोई उस डाली पर गाता।
       जिसके जितने ऊँचे सपने
       वह उतनी उतनी दूर उड़ा।

उड़ने का मतलब नहीं मगर
घोंसला सदा को भूल गया
फूलों से डाल सजी देखी
वह उसे पकड कर झूल गया।
     उन के आकाशी मधु फूलों का
     चाहे पल में गन्ध उड़ा।

कोई धरती कोई नभ हो
इच्छा के पाँव थिरकते हैं
तन में हो ख़ून जवानी का
तो पागल हृदय मचलते हैं।
     अगले पल ठोकर लगते ही
     चाहे यौवन का नशा उड़ा ।

मन-मन में इच्छा के दीपक
आँखों में फूलों के सपने
बीच परायों के अक्सर ही
अजनबी सभी लगते अपने।
     अपनों का देख परायापन
      बेगानेपन का रेत झड़ा।

नए पेड पर नए घोंसले
सब पंछी बना लिया करते
नव-नव नील गगन में जैसे
अपने तारे चाँद निकलते।
       धरती पर चलने वाला ही
      नव आकाशों के बीच उड़ा।