भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

आज शाम जब बरसा सावन / ज्ञानेन्द्र मोहन 'ज्ञान'

Kavita Kosh से
Rahul Shivay (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 10:08, 23 फ़रवरी 2018 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=ज्ञानेन्द्र मोहन 'ज्ञान' |अनुवादक...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

आज शाम जब बरसा सावन,
भीगा अपना तन-मन सारा।
भ्रान्ति लिए बैठा हूँ अब तक,
सावन था या प्यार तुम्हारा।

कान्हा ने राधा से पूछा,
तुम मुझको सच-सच बतलाना।
भली लगी कब तुम्हें बांसुरी,
और अधर तक उसका आना।

भीगे हम भी भीगे तुम भी,
शायद था सौभाग्य हमारा।

कह देने से कम हो जाता,
दुविधा में क्यों जीते-मरते।
तुम्हीं कहो उन सुखद पलों का,
मूल्यांकन हम कैसे करते।

मनः पटल पर स्पर्शों का,
बार-बार ही चित्र उतारा।

क्या जाने फिर कब बरसेगा,
दूर हुए तो मन तरसेगा।
दिल की बात कहेंगे किससे,
दिल का क्या यह तो धड़केगा।

जितना जो कुछ मिला भाग्य से,
हमने तुमने है स्वीकारा।