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प्रिय मल गए गुलाल / गरिमा सक्सेना

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पतझर-सा यह जीवन जो था
शांत, दुखद, बेहाल
उसमें तुम फागुन-सा आकर
प्रिय मल गए गुलाल

गम को निर्वासित कर तुमने
मेरा मोल बताया
जो भी था अव्यक्त उसे
अभिव्यक्त किया समझाया
उत्तर तुम हो और तुम्हारे
बिन मैं सिर्फ सवाल

आज प्यार का स्वाद मिला है
जिह्वा फिसल रही है
थिरक रहे अंतर के घुँघरू,
चाहत मचल रही है
चुप थे जो मधु-वचन हृदय के
हुए पुन: वाचाल

कहाँ बीतते थे दिन पल में,
युग जैसे दिन थे वो
नहीं घड़ी की प्रिय वो सुइयाँ
चुभते से पिन थे वो
आए हो तुम तो लगता है
पल-पल रखूँ सँभाल