भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

बदल रहा है गाँव हमारा / गरिमा सक्सेना

Kavita Kosh से
Rahul Shivay (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 11:04, 23 फ़रवरी 2018 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=गरिमा सक्सेना |अनुवादक= |संग्रह= }} {...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

नए दौर में नए तरह से
बदल रहा है गाँव हमारा

जबसे मॉल खुला है तबसे
पिजा-बरगर लगे हैं खाने
धीरे-धीरे बंद हो रही
झाल-चाट की सभी दुकानें
सेंडिल, बूट पहनने वाला
हुआ आधुनिक पाँव हमारा

छप्पर नहीं बचे हैं और न
गौरैयों का ठोर-ठिकाना
धीरे-धीरे जाल बिछाकर
शहर बुन रहा ताना-बाना
टावर, चिमनी खड़े हो गए
खोया पीपल छाँव हमारा

सूख रहे तुलसी के पौधे
बने सजावट गमले घर में
किट्टी पार्टी की रौनक है
काम बहुत है अब दफ्तर में
जहाँ कभी मिलते थे सब जन
नहीं रहा वह ठाँव हमारा