भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

क्यों न बोलें ये व्यथाएँ / राहुल शिवाय

Kavita Kosh से
Rahul Shivay (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 21:02, 23 फ़रवरी 2018 का अवतरण

यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

हे कलयुग के राम
सिया की अग्निपरीक्षा
कब तक लोगे

नारी का सम्मान यही है
देह है नारी
घुटती रहे महल में तो सति
है बेचारी
लछमन रेखा मर्यादा की
पार नहीं की
पर वह आँगन पार गई
तो भाग्य भाल पर
क्या लिक्खोगे

देख न पाए करती रही जो
हृदय-समर्पण
न्योछावर कर डाला उसने
तन, मन, जीवन
माली का है मूल्य चुकाया
याकि पुष्प का
एक बार अंतर में
झांक स्वयं से पूछो
तब समझोगे

बहुत सरल है दुनिया में
संबंध बनाना
नहीं सरल पर दुनिया में
संबंध निभाना
अगर परीक्षा ही लेनी है
तुम भी दे दो
क्या वनवास सिया को देकर
अग्निपरीक्षा
तुम भी दोगे

रचनाकाल-14 फरवरी 2018