भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
सिर्फ बाँचने लगे समस्या / राहुल शिवाय
Kavita Kosh से
Rahul Shivay (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 21:03, 23 फ़रवरी 2018 का अवतरण
सिर्फ बाँचने लगे समस्या
छोड़ समस्याओं के कारण
धर्म-पंथ विस्तार चाह है
पर अधर्म पथ चुना गया है
कितना ही षडयंत्र देश में
जालों जैसा बुना गया है
मानवता का अर्थ कहाँ है
धर्म हृदय में हुआ न धारण
छल ही छल है, हल की चिन्ता
पर संघर्षों से कतराते
सुई चुभाए बिन सिल जाए
मन में बैठे ख्वाब सजाते
भीष्म, द्रोण, कृप चुप बैठे हैं
टूट गया क्या मन का दर्पण
रंक बनेंगें महारंक अब
राजा जी महराज हो गए
भूल गए हम स्वर अंतर का
हम गीतों के साज हो गए
श्रम की सूखी रोटी मुश्किल
मगर मशीनों में आकर्षण
रचनाकाल- 8 जुन 2015