भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
रुक पाना कठिन था / चन्द्रेश शेखर
Kavita Kosh से
Rahul Shivay (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 23:43, 24 फ़रवरी 2018 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=चन्द्रेश शेखर |अनुवादक= |संग्रह= }} {...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
छोड़कर तुमको अकेला
मधुमये ! आना कठिन था
पर नियति जिद पर अड़ी थी
और रुक पाना कठिन था
कौन चाहे छोड़ना मधुगन्ध
जो तन मन रची हो
कौन चाहे त्यागना वह आस
जो केवल बची हो
किन्तु मेरी कुण्डली ने
प्रण समर्पित कर दिये थे
हाथ की रेखाओं ने भी
हार कर सर धर दिये थे
हारना भी भीरुता थी
जीत भी पाना कठिन था
वेदना रह-रह हिलोरें
मारती थीं मन विकल था
नयन क्या मेरे सकल
अस्तित्व का कण-कण सजल था
देह आगे बढ़ चुकी थी
किन्तु मन अब भी अड़ा था
हार कर,विक्षिप्त सा
बेसुध वहीं रोता पड़ा था
तन मेरे आधीन,लेकिन
मन को समझाना कठिन था