तुम ढल रहे हो / चन्द्रेश शेखर
रात-दिन कविता गज़ल और गीत में तुम ढल रहे हो
कौन कहता है कि तुमसे बन्ध मेरा कट गया है
हाँ मगर यह सच है कि लौकिक अँधेरा छँट गया है
क्या निकट क्या दूर तुम सांसों की लय में बस रहे हो
उम्र भर बजती रहेगी मन की वीणा कस रहे हो
हर डगर हर मोड़ पर लगता है संग-संग चल रहे हो
तुम भले ही प्रेम की अभिव्यक्ति खुलकर कर न पाये
लोक-लज्जावश प्रणय की बाहुओं में भर न पाये
किन्तु मन में क्या चला है जानता हूँ बिन बताए
मूक रहकर भी बहुत से शब्द हो जाते पराये
बात मन ने मन से की है जब भी तुम निश्चल रहे हो
निशि-दिवस अधरों पे' मेरे शब्द बन खिलते रहे हो
भीड़ में तुम साथ थे एकांत में मिलते रहे हो
बस तुम्हारा पत्र बनकर रह गया है मन का चिंतन
श्याम से तुम रास रचते मन है मेरा जैसे मधुवन
और इच्छा-शेष को पैरों से अपने दल रहे हो