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जीवन का बधाई-गीत / प्रज्ञा रावत

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इन दिनों में सीख रही हूँ
सूखती जाती बंजर ज़मीनों में
बीज बोना
देख रही हूँ बेटों की आँखों में
उभरते रंगीन सपने
और जी रही हूँ

अपना लड़कपन
अभी-अभी बनीं माँ और उसकी
नन्हीं धानी की महक से
भर दिया है घर का आँगन
और सुबह से शाम तक गाती
रहती हूँ बधाए
‘टेरो टेरो नाइन बिटिया
नगर बुलउआ देओ।’
 
अभी कभी ही मैं छिपने
लगी हूँ कहीं
बड़े होते बेटे की
नई-नई उगती दाढ़ी में
अभी-अभी ही मैंने बना दिया है
सारे आँसुओं का एक इन्द्रधनुष
और टाँग आई हूँ उसे
घर की देहरी पर।