भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
सूखे नयन / प्रज्ञा रावत
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 22:12, 27 फ़रवरी 2018 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=प्रज्ञा रावत |अनुवादक=जो नदी होती...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
सब डरते हैं
अँधेरी गुफ़ाओं से
सूखे नयनों से
इक्कीसवीं सदी का जुमला है
हँसो तो सब साथ देते हैं
रोना अकेले ही पड़ता है
कौने बैठे !
बैठा ही रहे
आसमान में छिपे तारे की तरह
टकटकी लगाकर निहारता
अपने ब्रह्माण्ड को
कौन बनकर हवा
सरसरा दे
निचाट अकेलेपन को
यह इस अकेलेपन की
अपनी ही बयानबाज़ी है
जहाँ सब कुछ गुम है
सिवाय इस आस के
कि कभी कहीं कोई तो गाएगा...
चलो दिलदार चलो
चाँद के पार चलो।