भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
तुम रहते हो / प्रज्ञा रावत
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 22:17, 27 फ़रवरी 2018 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=प्रज्ञा रावत |अनुवादक=जो नदी होती...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
आखिरी साँस तुमने ली
ज़िन्दगी मेरी रुक गई
मृत्यु-शैय्या पर लिटाया गया तुम्हें
जलती मैं रही
तुम रहते हो हमारे आसपास
आसमान के धुँधलके के समान
फीके पत्तों के रंग में
मेरी रुक-रुककर बजती
आवाज़ के साथ
हमारे प्रेमालापों के बीच
पसरते हो धीमे से
बढ़ते बच्चों के फीते बाँधते
गुनगुनाते उनके जवान होने का गीत
हौले से थपथपाते
मेरी पीठ
मैं तुम्हें यूँ ही
मरने नहीं दूँगी।