भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

दरवाज़ों का बन्द रहना / प्रज्ञा रावत

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 22:34, 27 फ़रवरी 2018 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=प्रज्ञा रावत |अनुवादक=जो नदी होती...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

जाने क्यों मन लगातार
उन जगहों को तलाश रहा है
जहाँ प्यार भरा आँचल हो
बैठे एक दूसरे में पसरे हम
दुलार के क्षणों में भूल जाएँ
बेरहम शोर, भड़कीले दृश्य
अकेलेपन से दूर बैठें एक साथ
हटा दें ये बेवजह पनपती
अदृश्य दीवारें

एक बार फिर हमारे मोहल्लों में
ताऊ चाची अम्मा बिट्टो-गुड्डो
माँग कर मुन्नी मौसी से ढोलक
कर दें ज़मीन और आसमान एक
शक्कर ना हो और हम पिएँ
गुड़ की फटी चाय

एक बार फिर सुबह-सुबह
कोई नन्हीं बिटिया
हाथ में कटोरी लिए माँगने आए
आधा कटोरी बेसन

देखो! मैंने तो अपने दरवाज़े
कब से खुले छोडे़ हैं

दरवाज़ों का इतना बन्द रहना ही
तो सबसे बड़ा अपशकुन है।