भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

ई ऊ गाँव है / कुमार वीरेन्द्र

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 16:31, 2 मार्च 2018 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=कुमार वीरेन्द्र |अनुवादक= |संग्र...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

 सुरुज उग रहा था

आजी घर के
पिछवाड़े गोबर सान रही थी
कई लोग नारे लगाते दुआर पर चढ़े, मैं जो लोइया ढोने के
लिए खड़ा, आजी संग आया, देखा, बाबूजी चिल्ला रहे हैं
उनकी चिल्लाहट कई बार सुनी थी, यह पहली
बार, जो उनकी आँँखें धधकती
हुई, लाल दिखीं

सुरुज उग रहा था

और आजी जैसे उसकी
ओट में, कान आड़े सुन रही थी, बाबूजी बौख रहे थे
'तुम लोगों को मालूम है, का कर रहे हो, अरे गाँव में दो-चार गो तो घर हैैं उनके, आज
राम के नाम पर ईंट माँग रहे हो, कल राम के नाम पर उनकी हत्या करोगे...अरे सोचो
भले रहते हैं गाँव के पश्चिम में, हर ख़ुशियाँ मनाते हैं, हमारे पुरुब में...उतरो
अबहीं उतरो, दुआर से...', और अच्छा हुआ कि बिन कुछ
बोले, वे चले गए, आजी उन्हें दूर तक
घूरते देखती रही

सुरुज उग चुका था

मैं लोइया ढो-ढो दे
रहा था, आजी गोबर पाथ रही थी, लेकिन जाने
कहाँ तो खोई हुई थी, पूछा तो कहा, 'असहीं बेटा, ला आज सब पाथ देती हूँ
कई दिनों से सड़ रहा है', जब पाथ लिया, तो मुँह धोते जाने का सूझा, दुआर
पर नाद बनाने को जो रखी थीं ईंटें, उठा-उठा आँगन में रखने लगी
मैंने पूछा, माँ ने पूछा तो यही जवाब दिया, 'अरे
दुआर पर रहे चाहे आँगन में, का
फरक पड़ता है'

सुरुज उग चुका था

लेकिन आजी को कहीं डूबा
देख, लगता था, सुरुज उगा न चाँद निकला है, दो कौर
खा, जब डेउढ़ी में खटिया पर ओठँगी थी, पास गया, 'आजी, मालूम है, तू काहे उदास
है, बााबूजी ने ईंट को लेकर जो चीखा-चिल्लाया, उसी कारन न ?', आजी कुछ देर चुप
रही, फिर जाने का तो ढूँढ़ते मेरी आँखों में कहा, 'बेटा, अब तुम सब भाई, जल्दी
जल्दी बड़े हो जाओ, बड़े हो जाओ, बेटा, कि अपने बाप-पितिया के
पाछे खड़े हो सको, बेटा, बात ईंट-भर की नहीं
है, ई ऊ गाँव है, बेटा, जहँवा

हर कमजोर अदिमी

मुसलमान है !'