नववधुएँ / अनुपम सिंह
ब्याह कर आई नववधू
सहम कर बैठी है
घर के कोने में
पसीज रहा है धीरे-धीरे
देह का सारा नमक
भारी-जरीदार साड़ियाँ
सोने-चाँदी के गहनों में
लिपटी ये नववधू
कुलवधू है
उदास होती मेंहदी को देखती
गाँव-पवस्त से
बच्चे-औरतें-लड़कियाँ
चली आ रही हैं
नयी बधूरी का मुँह देखने
कुछ पूर्व दिशा से आ रही हैं
कुछ पश्चिम से
उत्तर और दक्षिण दिशा से भी
चली आ रही हैं ये
बूढ़ी हो रही औरतें
जोड़ो में दर्द से
जगह-जगह सुस्ता रही हैं
संयत और शर्मीली लड़कियाँ
दर्द वाली औरतों पर भुनभुनाती
उनका इन्तज़ार करती
रास्ते में खड़ी हुई हैं
मिठाई की लालच से भरे बच्चे
उछलते हुए
आगे-आगे चल रहे हैं
कुलवधू, सप्ताह भर आँखें बन्द किए
बैठी रहती है घर के कोने में
बस, लाई जाती है
ले जाई जाती है
औरतें कुलवधू को देख
उसका जोड़ा सराह
सुहागवती-पुत्रोंवाली होने का
आशीष छोड़ देतीं हैं आँचल में
मिठाई से तृप्त बच्चे
मिठाई खा नहीं
बस चख रहें हैं
लड़कियाँ ख़ुश हो रहीं हैं
कुलवधू का लाल जोड़ा
गहनें-मेंहदी-महावर देख
मन ही मन लाँघ जाती हैं
सात समन्दर
कुलवधू चाहती है
खोल दे बन्द आँखें
सरका दे सिर से लबादे को
उतार के रख दे
देह को रगड़ते गहने
पोंछ डालें देह से
पसीजता नमक
ड्योढ़ी की अदृश्य छाया देख
डर जाती है वह
सप्ताहान्त आँखें बन्द किए बैठी कुलवधू
आज सबके लिए भोजन बनाएगी
एक-एक कर छुएगी गृहस्थी को
घबराई कुलवधु
किसी को अपनी तरफ
मिला लेना चाहती है
उसको नहीं पता
कौन कितना मिर्च
कितना नमक लेता है ख़ुराक में
उसको नहीं पता
किसमें अभी बाक़ी है
कितना नमक