भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

चांद-तारे / कुमार मुकुल

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

काँसे के हँसिए सा

पहली का चांद जब

पश्चिमी फलक पर

भागता दिखता है

तब आकाश का जलता तारा

चलता है राह दिखलाता

दूज को दोनों में पटती है और भी

भाई-बहन से वे साथ चहकते हैं

पर तीज-चौठ को बढ़ती जाती है

चांद की उधार की रौशनी

और तारा

तेज़ी से दूर भागता

सिमटता जाता है ख़ुद में

आकाश में और भी तारे हैं

जो जलते नहीं टिमटिमाते हैं

पर वे चांद को ज़रा नहीं लगाते हैं

निर्लज्ज चांद

जब दिन में

सूरज को दिया दिखलाता है

तारों को यह सब जरा नहीं भाता है।