आंगन में बंधे खम्भे से
लट सी उलझ जाती हैं
बहनें
और
दर्द की एक सदी
खुली छत की गर्म हवा में
कबूतर बन उड़ जाती है।
वे बाप की छप्पन साल पुरानी कमीज़ हैं
वे माँ के बचपन की यादें हैं
जो
उठती हैं हर शाम
चूल्हे के धुएँ संग
और
उड़तीं हैं पतंग बन।
वे चुनती हैं
प्याली भर चावल
कि
ज़िन्दगी को बनाया जा सके
अधिक से अधिक
साफ़ और सफ़ेद।
वे बनती हैं
आंगन से गली
और
गली से मैदान
जहाँ
रात की चादर में
बुलबुले सी फूटती है भोर
और
देखते ही देखते
धरती की माँ बन जाती हैं
बहनें।