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तुम कब आओगी / रंजन कुमार झा
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अपलक पंथ निहारा करता
तुम कब आओगी
घर को रोज सँवारा करता
तुम कब आओगी
व्यथा-वेदना के दर्दीले साये में रहकर
गीत लिखे मैंने तेरे जाने के दुख सहकर
वादों पर तेरे अब भी है ऐतवार मुझको
'आ जाऊंगी जल्दी ही' तुम गयी यही कहकर
पल वह नहीं बिसारा करता
तुम कब आओगी
आती हो तुम रोज़ मगर ख्वाबों में आती हो
बाहुपाश में मुझे समेटे प्यार जताती हो
कभी तुम्हारे हाथ मेरे हाथों में रहते हैं
कभी दूर ही खड़ी नयन से सब कह जाती हो
यूँ ही रात गुजारा करता
तुम कब आओगी
तुम आती, चंदा से कहता 'दूर अभी तू जा'
तुझे देख शरमा जाएगी मेरी महबूबा
तारों से कहता मुझको तू देख न ऐसे जल
तम में रहने दे कुछ पल, प्रिय-बांहों में डूबा
क्या सब नहीं विचारा करता
तुम कब आओगी।