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सच्चाइयाँ अफ़सानों को कह ढूंढ़ रहे हैं / रंजना वर्मा

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सच्चाइयाँ अफसानों को कह ढूंढ़ रहे हैं
आबे - हयात दरिया में बह ढूंढ़ रहे हैं

कुछ को मिली जमीन और कुछ को घर मिला
कुछ लोग मगर अब भी जगह ढूंढ़ रहे हैं

तूफ़ान वो उठा कि बस्तियाँ उजड़ गयीं
जो बच गये वो उस की वजह ढूंढ़ रहे हैं

दिलचस्पियाँ रहीं न खिलौनों में किसी की
हथियार लिये मात औ शह ढूंढ़ रहे हैं

डूबी है समन्दर में कहीं प्यार की कश्ती
लाये जो किनारे उसे वह ढूंढ़ रहे हैं

मतलबपरस्त लोग तोड़ते हैं दिलों को
नफ़रत की जो बाँधी है गिरह ढूंढ़ रहे हैं

हम को सुपुर्दे ख़ाक न करना ऐ दोस्तों
हम रब को दीवानों की तरह ढूंढ़ रहे हैं