भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

हमें हर रात यही बेकली सतायेगी / रंजना वर्मा

Kavita Kosh से
Rahul Shivay (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 18:01, 13 मार्च 2018 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=रंजना वर्मा |अनुवादक= |संग्रह=एहस...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

हमें हर रात यही बेकली सतायेगी
बिना तुम्हारे हमें नींद नहीं आयेगी

शबे फ़िराक़ मुश्किलों से कटा करती है
तुम्हारी याद हमें रात भर रुलायेगी

तमाम रात हैं भटका किये सहरा सहरा
थकेंगे पाँव तो फिर नींद भी आ जायेगी

मुसीबतों में सभी फेर मुँह चले जाते
तुम्हारा साथ तो उम्मीद ही निभायेगी

कहा करता है सच ही आईना ये अब समझे
अना से पूछिये सच्चाइयाँ बतायेगी
 
तमाम उम्र वस्ल की तो जुस्तजू ही रही
तुम्हे पाया ही नहीं मौत चली आयेगी

लुटाते जान दूसरों के लिये जो अपनी
यनहीँ की मौत फ़िज़ा अश्क़ भी बहायेगी