भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
होठ पर ठहरी हुई सी तिश्निगी है / रंजना वर्मा
Kavita Kosh से
Rahul Shivay (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 20:18, 13 मार्च 2018 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=रंजना वर्मा |अनुवादक= |संग्रह=रंग...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
होठ पर ठहरी हुई-सी तिश्निगी है
जिंदगी जैसे कि इक प्यासी नदी है
है अभावों से हमारा दोस्ताना
तू नहीं है साथ बस ये ही कमी है
भर गये देखो लहू से पाँव मेरे
कब अँधेरी रात देती रौशनी है
तल्ख़ लहज़े में न अब कर बात कोई
याद तेरी बन गयी दीवानगी है
दे सके ग़र बेसहारों को सहारा
तो समझ कर ली खुदा की बन्दगी है
छू रहीं लहरें समन्दर की फ़लक को
चाँद से उन की ये कैसी आशिक़ी है
हम फ़साना कह रहे हैं दर्दे दिल का
सुनने वालों के लिये बस शायरी है