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टूटा हुआ दिल / जितेंद्र मोहन पंत
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गहन निद्रा में स्वप्नानंद था लेता,
एक भयंकर ध्वनि से तंद्रा टूटी,
क्या मेघ—स्फुटन से कही वज्रपात हुआ होगा,
ध्यान आया किसी का दिल टूटा होगा।
विचार मग्न पथ पर था अग्रसर,
नीचे देखा तो लहू के कतरे पड़े थे,
सोचा किसी मांसभक्षी ने आखेट किया होगा,
ध्यान आया किसी दिल से लहू रिसा होगा।
उपवन में बैठा ले रहा था फूलों की महक,
बदबू का एक झोंका आया अचानक,
सोचा कहीं कुछ जला होगा,
ध्यान आया कोई बेचारा दिल जला होगा।
यह टूटा हुआ दिल ही तो है,
जो कि जुड़ता नहीं है।
यह रिसता हुआ दिल ही तो है
जिस पर पैबंद नहीं लगती है।
यह जलता हुआ दिल ही तो है,
जिसकी आग बुझती नहीं है।
यह दिल का दर्द ही तो है,
जो कि कम होता नहीं है।